Tuesday, October 7, 2008

बफर-बफे-बफेलो• संजय झाला
स्वरूचि भोज में मेरी सदैव अरूचि रही, ठीक उसी प्रकार जैसे प्रधानमंत्री पद के प्रति प्रधानमंत्री बनने से पूर्व वी.पी.सिंह की,राजनीति में आने से पहले राजनीति के प्रति सोनिया की। लेकिन क्या करें? पता चला दोनों को देश भäि के भारी दबाव के कारण दोनों काम करने पड़े।मेरी भी यही स्थिति है। स्वरूचि भोज का पता नहीं लेकिन क्रांतिकारी पड़ोसन ‘रूचि‘ में सभी की रूचि, यदा-कदा खिड़कियों से, छतों से प्रदर्शित की जाती रही है। कभी-कभी संचार माध्यमों का भी सहयोग लिया जाता रहा है।मैं स्वरूचि भोज में आहूत किया गया, स्वरूचि भोज वो भी ‘रूचि‘ के साथ.....। काWलोनी के सभी वर्तमान युवाओं की वही मन:स्थिति थी जो सरकार बनाने का निमंत्रण मिलने के बाद संयुä मोर्चा व गठबंधन सरकार के नेताओं की थी। मुझे पांडे जी के साथ जाना था। भारतीय परम्पराओं को तोड़ते हुए मैं निर्धारित समय पर पहुँचा। द्वार पर दो द्वारपाल थे। एक हाथ में डायरी, दूसरे में पैन। ये पी.डब्ल्यू.डी. में एकाउन्टेंट थे। ¼लेन-देन में ये पारदर्शी हैं, इनका परसन्टेज फिक्स है½ इनको देखकर यह स्पष्ट था कि ये आने वाली राशि का लेखा-जोखा लिखेंगे। ‘लिखेंगे‘ या ‘रखेंगे‘ ये ईश्वर के अतिरिä वे स्वयं जानते हैं। आनन्दकर जी ¼पुलिस जी½ लड़की के पिता, द्वार पर इस मुदzा में खड़े थे,-देखें! कौन देकर जाता है, कौन साला नहीं। जो नहीं देकर जायेगा, थाने में बुलाकर चôू बरामद करा दूँगा। कुछ ओपन अर्थात अनावृत धन देकर जा रहे थे। जो पहले दे रहे थे, उनका भाव स्पष्ट था ‘कि इतना खायेंगे‘। जो बाद में देंगे, वो भी लिफाफे के बाहर राशि लिखकर, ऐसे महान व्यवहारियों, संबंधियों के समक्ष मैं नतमस्तक होता हूँ। राशि के प्रति उनके इस भाव ‘कि खोलेंगे तो राशि निकल भी सकती है, नहीं भी। हमने दिया, आगे की तुम जानो। हमने लिखकर दिया है। बाद में माल नहीं मिले तो उसकी हमारी कोई गारन्टी नहीं है, ‘भूल-चूक-लेनी-देनी,‘ को मै अपनी अन्तर आत्मा से प्रणाम करता हूँ। सजा खाना, सजी-सलाद, सजी दुल्हन-सेज। एक चने की दो दाल। दोनो का एक भविष्य, एक पंथ...., एक अंत...., हा...... हंत। ¼पंथ, अंत, हंत, आहा ! तुक मिल रही है, लेकिन तुक मिलाने का काम राष्ट्रकवि पर छोड़ो और आगे की कड़ी जोड़ो।½ ये बफे-बफर ¼डफर½ सिस्टम था। जिसकी उत्पŸिा सम्भवत: बफेलो सिस्टम से हुई थी। ये साक्षात पशुभोज सदृश है। ‘बफर की मिठाईयाँ,राशन सामzगी की तरह, एक घन्टे बाद जिसकी स्थिती स्टाWक-बोर्ड पर ‘निल‘ हो जाती है।‘ आगन्तुक टहल रहे थे खाने से पूर्व पेय सामzगी यथा जूस, ठंडा, चाय आदि अस्तित्व में नहीं थी। दरियों-गलीचों पर कपों व टूटे गिलासों को देखकर, पेय पदार्थो के अस्तित्व का अनुमान होता था। क्षणान्तर में आगन्तुक ‘आदिम‘ द्वारा इनका शिíत के साथ विनाश कर दिया गया था। अब इनके विकास की संभावना गौण थी। आगन्तुकों के साथ मुझे भी गृहस्वामी के आदेश की प्रतिक्षा थी। आगन्तुक आक्रामक मुदzा में टहल रहे थे। गृहस्वामी के आगzह की परिणति यलगार व आक्रमण के रूप में हुई। थोड़ी देर बाद खाने का वही हश्र हुआ, जो पिछली तीन लड़ाईयों में पाकिस्तान का हुआ था। मैं प्लेट हाथ में लिए खाना प्राप्त करने के लिए अंत तक संघर्ष करता रहा। ठीक उसी प्रकार जैसे पाकिस्तान कश्मीर प्राप्त करने के लिए करता रहता है। बूथ केप्चरिंग की पावन लोकतांत्रिक प्रक्रिया का निवर्हन करते हुए प्लेट प्राप्ति के प्रयास में बारम्बार हार को मैंने आखिर जीत में तब्दील किया और प्लेट हथियाली, धôाली, मुôाली, जबराली। मैंने दही-भल्ले प्राप्ति के लिए जंग छेड़ रखी थी। सोच रहा था, नहीं मिले तो परमाणु यु++द्ध निश्चित है। मेरे हाथ के नीचे से एक ‘हाथ‘ घुसा, कांगzेस का था या विदेशी ताकतों का , पता नहीं और नीचे से रसगुल्ले निकाल ले गया। मेरे सफेद कपड़ों पर हरी चटनी गिरी। मुझे अपनी श्वेत शान्ति में हरित क्रांति का अहसास हुआ। एक बालक ने मुझे ‘पीत क्रांति‘ की सौगात दी। मैं हाथ, पैर व कपड़ों का स्वच्छीकरण करने लगा तो मुझे ठंड से ‘शीत क्रांति‘ का अनुभव हुआ। धोने की इस प्रक्रिया से गुजरने के बाद अपनी प्लेट को यथा स्थान पर नहीं पाकर मुझमें ‘भयभीत क्रांति‘ का संचार हुआ। मेरी प्लेट गायब हो गई, एक ‘याद‘ हो गई। फिर मैंने निष्कर्ष निकाला कि अगर बफर सिस्टम में खाना खाने जाना हो तो चÔी-बनियान पहन, हाथ में लÎ लेकर Ýी-स्टाइल में जाना चाहिए। दुनिया जानती है लाठी अगर हाथ में हो तो ‘बफे‘ क्या ‘बफेलो‘ तक अपनी होती है। कुछ ऐसे नर पंुगव थे जो प्लेटो में खाद्य सामगिzयाँ लेकर उन्हें मात्र सूंघकर धरती माँ को समर्पित कर रहे थे। ऐसे संत महात्माओं को वेदों और पुराणों में पूर्वजन्म का कर्जदार कहा गया हैं। कुछ चाँदी के चम्मच, बर्तन, दिवंगत हो चुके थे। वे महाभेजकों की जेबगत होकर उनके घरों की शोभा बढ़ाने को लालायित थे। एक सज्जन को मैं एक घन्टे से पहचानने की चेष्टा कर रहा था। सोच रहा था, मैंने इनके कहीं न कहीं दर्शन किये हैं। अन्त में पाया कि ये भगवान वामन के श्रेष्ठ अनुयायी थे, जिन्हें मैंने भिक्षा के नाम पर अनेक राजा बलियों को बली का बकरा बनाते देखा है। बली का बकरा से याद आया कि राजा बलि के पास तीनों लोकों की भूमि थी, हो सकता है वो तत्कालीन भू अभिलेख, रजिस्ट्री अधिकारी को बतौर उपहार अपना पालतू बकरा दिया हो । कालान्तर में यही बकरा, ‘बलि के बकरे‘ के नाम से जाना गया हो। भगवान वामन की तरह इनकी भीख माँगने की स्टाइल भी उत्कृष्ट एवं नवीनतम है, आशा है भिक्षुक एवं भिक्षार्थी इससे लाभान्वित होंगे। ये हाथ में पाँच सौ का एक आदिकालीन नोट लेकर सामने वाले से कहते हैं, ‘‘भाई साहब ! आपके पास दो रू. खुल्ले होंगे ? मेरे पास पाँच सौ का है, खुल्ले नहीं है।‘‘ इस तरह वह पाँच सौ का दिखा-दिखा कर दो-दो के हिसाब से पाँच हजार कर लेता है। मैं कहता हूँ कि सरकार अगर ऐसे बुद्धिजीवियों को संरक्षण दे तो ये नोंटो की खेती का नया फार्मूला बना सकते हैं। फिर गरीबी की ‘रेखा‘ से नीचे जीवन यापन करने वाले ‘अमिताभों‘ को, क्षमा करें... ‘गरीबों‘ को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से बँटवा सकते हैं। कितना अच्छा होगा जब एक गरीब, राशन की दुकान से दस किलो गेहूँ की जगह दस-दस किलो पाँच-पाँच सौ के नोट लायेगा। इस प्रवृति के लोग भोज में धôा-मुôी के मुल थे। थोडी देर में धôा-मुôी, पद-हस्त प्रहार में जीवन्त हो उठी। पता चला कि विद्युत अवरोध के दौरान किसी ‘भदz‘ ने किसी ‘भदzाणी‘ के साथ ‘वो‘ कर दिया, जिसे भारतीय शास्त्र सार्वजनिक रूप से करने की अनुमति नहीं देते। खूब जूतम-पैजार हुई । इस प्रकार के भोजों में पुलिस बल तैनात होना चाहिए ¼जिससे भोजन अगर पुलिस से बचेगा तो ही जनता के लिए रहेगा½ जो ऐसी वारदात होने पर आँसू गैस अथवा अधिक आवश्यकता पड़ने पर लाठी चार्ज कर सके। मैं अपने बुद्धि प्रयोग से अपने को अंग-भंग होने से बचाकर घर आया। वाह रे बफर। साले फालतू घूमने वाले सांड़ भी सिस्टेमेटिक तरीके से खाते हैं। पशुओं के आहार-संहिता होती है। आदमी-आदमी नहीं ‘बिहार‘ हो गया है जहाँ ‘आचार‘ का ‘अचार‘ डाल दिया जाता है।

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