Tuesday, October 7, 2008



यत्र चीयर गर्ल रमंन्ते......
भारत आत्माओं, बाबाओं, सापों, अध्यापकों, प्रेमियों, प्रोपर्टी डीलरों और लीड़रों का देश हैं। बिना बात झूठ बोलना, समय मिलते ही बच्चे पैदा करना, अवसर मिलते ही लड़कियाW छेड़ना, यहाW के लोगों को सनातन खेल हैं। सितौलिया खो-खो, कबÏी, चोर-पुलिस, चंगा-पौ, साWप सीढ़ी, कंचे, ताश, होली पर पडोसियों के हाWडी फोडना, गिल्ली-ड़ण्डा हमारे सार्वकालिक महान व पुरातन खेल हैं। हमने बिना सरकारी सहायता के अपनी आत्मा के स्तर पर इन खेलों का विकास किया, और जब आत्मा के स्तर पर इनका विकास हो गया तो हमने इन खेलों कों परमात्मा के भरोसे छोड़ दिया। हम इन खेलों में सदैव ‘प्रथम‘ रहे, क्योंकि कभी किसी ‘द्वितीय‘ ने ये खेल खेले ही नहीं। इन स्वघोषित, स्वपोषित व स्वशोषित महान है। कबूतरबाजी, फWादेबाजी, लासेबाजी व झाWसेबाजी जैसे शाश्वत राजनीतिक खेलों का भी हमारे जीवन में उतना ही महत्व है, जितना क्रिकेट में बल्लेबाजी का। मुख्यत: हमारा देश क्रिकेट प्रधान हैं, अगर आप सरकार की बात का भरोसा करना चाहें, तो यह —षि प्रधान देश हैं। यह हमारी सरकार का वैश्विक व वैज्ञानिक दृष्टिकोण है कि उसने —षि और क्रिकेट के संयुक्त का उत्थान का भार —षि मंत्री को सौंपा हुआ हैं। वे खेले खायें राजनेता हैं, चाहें तों खेतों में क्रिकेट खिलवा सकते हैं, चाहें तो क्रिकेट के मैदान में मंूगफली उगा सकते हैं। माननीय मंत्री महोदय का मानना है कि क्रिकेटरों के हाथों में हल व किसानो के हाथों में बल्ले दिये जायेगें। इस नीति से दोनो की बल्ले-बल्ले हो सकती हैं। वैसे भी खेतों की धरती बिना पानी के पिचक कर ‘पिच‘ हो गयी है, वहाँ फसलों के फल फुलने की जगह क्रिकेट ही फलेगी, फुलेगी। वो दिन दुर नही जब खेतो में गेंहू चावल की जगह बाWल बल्ले ही लहलहायेगें। हमने सारे पानी का कोकाकोला बना लिया, जो खेत पानी को तरस रहे हैं और जिनकी प्यास बड़ी है, उनकी सिंचाई, पिलाई, निराई व बुवाई कोकोकोला से की जायेगी। सरकार को विश्वास हो गया है की चीयरगर्ल के नृत्य से रन व धन बनाने में आशातीत सफलता मिली है, इसीलिये हम अन्न उगाने के लिए खेतों में चीयरगर्ल नचायेगे। हम अन्न देवता को रिझाने के लिए र्सोन्दर्य व ढुमको की सुपारी देगें और कहेगेे, ‘यत्र चीयरगर्ल रमन्ते तत्र उगन्ते अन्न देवता’। कृषि हमे धान व ‘क्रिकेट हमे धन देती हैं, धन भी वो जिसे पाकर हम नैतिक दृष्टि से इतने तन जाते है कि हम मैदान में थप्पड़ को पापड़ की तरह खाते है और दुसरे दिन प्रेंस काँÝेंस मे थप्पड नही खाने की घोषणा करते है।क्रिकेट ने ऐसे ‘संत’ और ’भजनी’ पैदा किये हैं, ये संत नही बल्कि साबरमती के संत है। अगर तुलसी दास जी आज होते तो वे ‘खल के वचन संत सहि जैसे’ कि जगह ’खल की चपत संत सहि जैसे’ लिखते । गांधी जी को क्या पता था उनकी अहिंसा की पोलसी के अन्तर्गत दिया व लिया जाने वाला थप्पड़ व्यापार और वाणिज्य से जुड जायेगा थप्पड के लेन देन से करोडो का हानि-लाभ होगा। थप्पड़ की मार से खिलाड़ीयो को मंहगाई की मार का भी पता चला, जो चीज Ýी मे पडती थी वो ढाई करोड़ के उपर की पडी। सतत हार हमारी सतत साधना का परिणाम है हार हमे हरि का स्मरण कराती हैं। हमारा मानना है कि हम हारे हरि को जायेगें अथवा हारे को हरि नाम हैं। जीतने वाले उल्लू के पटढे हैं वे हारने के आनन्द को क्या जाने हम भोतिक स्तर पर हार सकते है लेकिन आध्यात्मि व आत्मिक स्तर पर किसी का बाप भी नही हरा सकता क्योंकि हम योगी हैं और योगी हार जीत से परे होता हैं, बकौल अटलबिहारी वाजपेयी जी ‘हार मे जीत में किचिंत नही भयभीत में कर्तव्य पथ पर जो मिला यह भी सही वह भी सही.............’ कहो कैसी कही। हम प्रारम्भ से ही हाइ टेक किस्म के त्यागी है। हमारे शिबि,दधीचि व हरिशचंदz ने दूसरे की प्रसन्नता के लिए अपने प्राण त्याग दिये तो क्या हम तुच्छ सोने चाWदी के मैडल नही त्याग सकते। हमने सोने चाWदी के हाथ इसलिए भी नही लगाया है क्योकि सोना चाWदी माया है और माया महा ढगिनी हम जानी। हम जीतते है तो सांड़ है और हारते है तो गउ के जाये हैं। हमारे कोच दोषा रोपण सहने और टीम मे बने रहने का दूसरा नाम है। बहूधा कोच आयातित होते है निर्यात करने का हम सोभाग्य प्राप्त नही हुआ है। जो घर के कोच है वे घर के कोच है उन्होने घर के खेल को न घर का छोडा है न घाट का छोडा है। सरकारी दृष्टि मे हाWकी हमारा राष्ट्रीय खेल है। थोडे दिनो यही हाWकीं और चलती तो यह हाWकी वृ++द्धजनो, निशक्तो को सम्बल प्रदान करती है और अंधो को सड़क पार कराने के काम आती है। हाWकी बाWल को हम म्यूजियम मे रखते और उसके नीचे लिखते यह वो बाWल है जो हाWकी के स्पर्श को तरस गयी। मैया यशोदा अपने कान्हा को यमुना किनारे कन्दुक क्रीडा करने से मना करती थी क्योकि वहा कालिया नाग रहता था, जो कन्दुक ¼बाWल½ पर कुण्डली मारकर बैठता था। कालिया नाग निश्चित रूप से तत्कालीन हाWकी फैडरेशन का चेयरमैन रहा होगा। गर्दन तक आन पडी तभी सरकारी कन्हैंया ने इस नाग का मर्दन किया। दरसल बात यह है जब से खेलो पर राजनीति व धन का दृष्टिपात हुआ वही खेलो पर बजzपात हुआ। राजनीति के रंगरेजो ने खेलो कि चदरीया को न सिर्फ मैला किया बल्कि उसमे छेद भी कर दिया राजनीति सभी खेलो की सुरसा मैया हैं, जिसका मुह खुला है और पेट खाली हैं। असली खेल वो खेल रहे या वो खिला रहे है जो वोट और नोट ओढते बिछाते और खाते है फिर तोद पर हाथ फिराते ह,ै डकार लेते है और पान मसाले कि जुगाली करते हुए ये शाशवत जुमले उछालते है, ‘‘खेलो को खेल कि भावना से खेलना चाहिए।’’ खेलो से ही व्यक्ति का सर्वागीण विकास और खेलो के विकास मे धन कि कमी नही आने दी जायेगी। अब हम खेलो को रोये, खिलाडियो को रोयें या खिलाने वाले को रोयें, तो जाने भी दो यारो..... आराम बडी चीज है, मुँह ढँक के सोयें।
संजय झाला ‘श्याम निकेंतन‘ संगम विहार, नई मण्ड़ी रोड़ दौसा 3033039414035450

लादेन एकादशी-अफजल त्रयोदशी
• संजय झाला
वो दिन दूर नहीं जब विश्व में लादेन एकादशी, दाउद नवमीं, अफजल त्रयोदशी और हिजबुल पंचमी धूमधाम से मनायी जावेगी। ये हमारे नये ग्लोबल फेस्टीवल्स हैं। खबरदार! जो किसी ने इन्हे आतंकवादी कहा, ये वो महात्मा हैं, जो पलक झपकते ही आत्मा को परमात्मा से मिला देते हैं। ये यमराज के साडू भाई हंै, लेकिन ये हमारे सच्चे गुरू भी हैं, क्योकि ये हमेशा हमारा भला सोचते है और कहते हैं, ‘‘हे बाWगडुओं पंचतत्वों से बने तुम्हारे इस अधम शरीर को पंचमहाभूतो में मिलाओ और फिर स्वयं भूत बन जाओ। हम इस कार्य मे आपका ठीक वैसा ही सहयोग करेगे जैसा ’तत्वज्ञान‘ माया से मुक्ति में सहयोग करता है। यह आतंकवादियों का आध्यात्मिक पक्ष हैं। इनका! भौतिक पक्ष यह है कि ये हमारी सरकार के मुँह बोले फूफाजी हैं, लोकतंत्र की बुआजी के सुहाग हंै और हमारी जेलें सुहाग की सेजें हंै। हमें हर हाल में बुआजी का मंगलसूत्र बचाना है। ‘मंगल’ से याद आया यह गzह आतंकवादियों का बाÅजी है, सारा दोष इस गzह का है, जो संतो को आतंकवादी बनाता हैं, क्योकि नवमांश की कुण्डली में यह दसवें स्थान पर पाप प्रभावित होता है तो यह व्यक्ति को विनाश, ध्वंस दादागिरी व गुण्डागर्दी सिखाता है। हम व्यर्थ में ही पाकिस्तान को दोष देते हैं, वो जब जब धमाको से हमारा मरण करते है, तब-तब हम उसकी ‘माँ-बहन’ का पुण्य स्मरण करते हैं। पाकिस्तान तो बेचारा सीमा से ‘रसगुल्ले’ भेजता है, वो तो सीमा पर विचरण करने वाली रूहानी ताकतो की वजह से वो रसगुल्ले, बमगुल्लो मे तब्दील हो जाते हैं। वैसे मंगल गzह तो पुलिस का भी कारक है। हे भगवान! क्या खूब जोड़ी मिलायी है। लेकिन भला पुलिस व आतंकवादियों का क्या मेल घ् जी हाँ.. है, दोनो की ‘वृति’ अलग है, लेकिन ‘प्रवृति’ एक हंै। पुलिस सरकारी है और आतंकवादी असरकारी। पुलिस तो केवल उन्हे गिरफ्तार करती है, बीड़ी जलाने के लिए उनसे माचिस माँगती है, दोनो पीतें है एक ही बीड़ी, यहीं से शुरू होती है उनके भाई चारे, प्यार-मोहब्बत की सीढ़ी। यहीं से पुलिस और आतंकवादी परस्पर एक दुसरे से ऐसे मिलते है जैसे ‘जीव’ बzã से मिलता हैं। आतंकवादी बरसो पुलिस की गिरफ्त में साथ-साथ रहता हैं, इसलिए दोनो में परस्पर मीठे सम्बन्ध जन्म लेते हैं। हमारी कानून-व्यवस्था जन्म से ही डायबिटीक हैं, हमारी पुलिस कहती है, ’’आतंकवादियो तुम हम से इतना मीठा मत बोलो, नहीं तो हम तुम्हे हथकडी व लाँकअप की चाबी दे देगें।मंगल आतंकवादियो का कारक तो है, लेकिन यह मंगल हरण अमंगल कारक है। शनि गzह प्लानिंग अर्थात योजना का कारक है, इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि योजना आयोग में बैठने वाले सारे शनीचर हैं। शनि ही बम फोडने की प्लानिंग करता है और उसको क्रियान्वित कराता है, इसमे बेचारे लादेन जी, अफजल जी, दाउद जी जैसे महापुरूषों का क्या लेना-देना।
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जो भी हो, ये महात्मा, जिन्हे अज्ञानी आतंकवादी कहकर पुकारतें हैं, बहुत ही जिम्मेदार, जवाबदेह और धर्मनिरपेक्ष प्राणी हैं। ’’जिम्मेदार’’ इसलिए कि बम फोडते है तो तत्काल ई-मेल भेजकर जिम्मेदारीे लेते हैं। साठ साल से जो देश की मान मर्यादा पर हमला कर रहे हैं। उन्होने आज तक इसकी जिम्मेदारी नही ली। ‘‘जवाबदेह’’ इसलिए कि हम एक आतंकवादी मारते हैं तो ये जवाब में चार पुलिस वालों के परिवारो को सरकारी मुवावजा पक्का करवाते हैं। ’’धर्मनिरपेक्ष’’ इसलिए कि ख्वाजासाहब कि दरगाह हो या अक्षरधाम दोनो जगह बम बर्षा में सिक्स एम-एम के छर्रे लगाते हैं। हमारी जांच एजेंसिया जांच के पश्चात इस नतीजे पर पहँुचती है कि साइकिल बमों के हैन्डल में चार एम-एम व एक्सल में सिक्स प्वाइंट अठाईस एम-एम के छर्रे लगाये थें। इन छर्रो और जांच एजेंसी के गुलछर्रो का गहरा रिश्ता हैं। जांच आयोग व एजेंसियाW गहन जांच करते हैं, और जांच में यह पाते हैं कि विस्फोट में जिस तरह के विस्फोटक काम में लिये गये थे, वो जरूर या तो रेल मार्ग या वायुमार्ग या सड़क मार्ग से लाये गये हैं और इनको लाने वाले निश्चित रूप से आतंकवादी ही हैं। जांच एजंेसी आतंकवादियों का स्केच जारी करती हैं और जिन व्यक्तियों के मुँछ नही होती उनके मुँछे लगाकर व जिनके होती हंै। उनको उखाडकर स्केच से मिलान करती हैं। पुलिस रेल्वे स्टेशनों व हवाई अड~डो पर भी गहन जांच करती हैं, और वो जांच इतनी गहन होती है कि बंद अटेचियों को खोलती हैं और खुली अटेचियों को बन्द करती हैं। एक संुदर महिला की जांच के लिए दस-दस पुलिस वाले टूट पड़ते हैं। वो उसकी लिपिस्टिक खोलकर उसमे छर्रे वाले बम तलाशतें हैं। बेचारे पुलिस वालों को क्या पता कि सुन्दर महिलायें ’बम’ नही रखती बल्कि स्वयं चलती-फिरती ‘बम‘ होती हैं। अगर हम गहनता से आतंकवाद की जांच करेंगे तो पायंेगे कि यह सत्ता व सत्ताधारियों के भोग विलास व आनन्द का उत्पाद हैं। इन्होने इसको मजे मे पैदा किया और भूल गये, अब आतंकवादी येन, केन, प्रकारेण, प्यारेण अथवा बम-मारेण सत्ताधीशो को याद दिलाते रहते हंै, कि त्वमेव माता च ताता त्वमेव, त्वमेव भzाता च दाता त्वमेव।पाकिस्तान आतंकवादियों कि ‘सरोगेट मदर’ हैं व प्रियवर बाWग्लादेश ’फोरगेट बzदर’ हंै। ये सत्ता के अवैधात्मज हैं। पिता के प्लाट में से ये आधा अलाWट चाहते हैं। इसी चक्कर में ये मारकाट हैंं। पर हम हर हाल में शान्ति चाहते हैं, इसीलिए बातचीत के दौर-दौरे चलते हैं। नतीजा वही देखने-सुनने को मिलता है। ‘‘चौथे दौर की बातचीत सौहार्दपूर्ण ढंग से समाप्त’’ ‘‘पाWचवंंे दौर की तैयारीयँा शुरू’’ ‘‘छठे दौर की घोषणा’’ ‘‘सातवें की सम्भावना’’ ‘‘आठवें दौर में प्रधानमंत्री परस्पर एक-दूसरे को आने जाने का निमंत्रण दंेगे’’ आदि, इत्यादि, अनादि ! इस ‘‘बातचीत’’ में बात वो करता है और ‘‘चित’’ हम होते हैं। ‘‘वार’’ वो करता है, हम ‘‘वार्ता’’ करते हैं पर हम शान्ति प्रक्रिया जारी रखतें हैं, क्योकि हम लोकतंत्र के शेर हैं, लेकिन श्वानों को टेबल पर बिठाकर बातचीत करते हैं और पूछते हैं कि ‘‘सर! आप चाय लेगे या कांफी’’ घ्वो रोज ‘बम’ फोडता है, हम जवाब में ’भाषण बम’ फोड़ते है - लो, बम बारी पेशे खिदमत है- प्यारे भाईयों और बहनों!‘‘आतंकवाद से कड़ाई से निपटा जायेगा। भारत शांति प्रक्रिया और समगz वार्ता प्रक्रिया के लिये प्रतिबद्ध है। दोनो देशों के बीच विश्वास बहाली के प्रयास जारी रहेगे। द्विपक्षीय संबंधो और क्षेत्रीय सुरक्षा की स्थिति पर चर्चा की जावेगी। बातचीत के जरिये ही सुलझेगें अहम मसलें।‘‘ उनके ‘बम’ वही, हमारे ‘भाषण’ वही। अखबार वाले ये भाषण पहले से ही तैयार रखते हैं, बस बम फटते ही तारीख और स्थान भरना पड़ता है। कुछ भी हो हम हिन्दुस्तानियों के हौसलो का जवाब नहीं, सुबह आतंकवादी ‘मारकाटिंग‘ करतें हैं, हम शाम को मार्केटिंग करते है। ¼2½



हमारे हौसले की दाद दो अमरीकी भैये। तुम तो आंकवाद को मानते ही नही थे। ठीक उसी तरह जिस तरह आई.आई.टी. के छात्र भूतों को नही मानते। अमरीकी नीति के अन्तर्गत मंत्र आप पढतें थे और पाकिस्तानियों भूतों की बांम्बी में हाथ देता था। एक दिन इन्ही भूतों ने वायुमार्ग से वर्ड ट्रेड़ सेन्टर को बाहों में भर लिया। दोनो एक दूसरे से ऐसे लिपटे-चिपटे कि अब तक अलग नहीं हो रहे हैं। अब अमरीका में आतंकवाद के भूत-प्रेतों से बचाने के लिये प्रति वर्ष लादेन एकादशी हर्षाेल्लास के साथ मनायी जाती है। अमरीका बडा महान है। बारूद के बिछोने पर बैठकर शांति मंत्र पढ़ता है। वो शान्ति का पहरेदार हैं, यह बात अलग है, उसके पास बमों का भंडार हैं।पर हमें कोई तो बताये कि हमने कितने महात्मा आतंकवादियों को मोहब्बतें लुटानें के लियें पकड़ा हैं? ये कहा हंै? क्या ये जेलों मे ’’सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा गा रहें है’’ ¼क्योंकि यही एक देश है जहाँ जीते जी कोई किसी का कुछ नही बिगाड़ सकता½ या हमारी की लम्बी आयु के लिये महामृत्युजंय का जाप कर रहे हैं। ये कब तक हमारा ही नमक हाथ में लेकर हमारे ही जख्मों की तरफ आँख मारंेगें। देश के कर्णधारों! ये तो अल्लाह का फजल है कि आप अब तक सुरक्षित है, वरना अफजल का फजल होता तो आप की भी आत्मा ’वासांसि जीर्णानि यथा विहाय टाईप हो जाती। क्या आप आतंकवादियों को वो जीवेत~ शरदम शतम’ का वरदान दे चुके हो। हे भारत भाग्य विधाताओं! - इस देश का जन-गन-मन आपसे बिना पैसे का सवाल पूछ रहा है। शायद आपका यही जवाब होगा कि, ‘हे भारत वासियों! आपको गाय गंगाजी की कसम है, अगर आपने हम पर भरोसा किया, अगर आतंकी हमलों से बचना हैं, तो बच्चों को घर पढवायें,आWफिस की बzांच घर ही खोल लें, पूजा के लिये देवी-देवताओं को घर बुलवालें, बाWलकनी में सब्जियाँ उगा लें, यात्रा पर जाये तो केवल अंतिम यात्रा पर और यात्री अपने सामान की स्वयं रक्षा करें। और अंत में गालिब के दो शेर सुन लीजियें - मौत का एक दिन मुहियन है,नींद क्यों रात भर नहीं आती।ओरं एक शेर जेहादी महात्माओं के लियें- बस दुश्वार है हर काम का आसां होना,आदमी को मयस्सर नही इंसा होना। ‘श्याम निकेंतन‘ संगम विहार, नई मण्ड़ी रोड़ दौसा 3033039414035450



बफर-बफे-बफेलो• संजय झाला
स्वरूचि भोज में मेरी सदैव अरूचि रही, ठीक उसी प्रकार जैसे प्रधानमंत्री पद के प्रति प्रधानमंत्री बनने से पूर्व वी.पी.सिंह की,राजनीति में आने से पहले राजनीति के प्रति सोनिया की। लेकिन क्या करें? पता चला दोनों को देश भäि के भारी दबाव के कारण दोनों काम करने पड़े।मेरी भी यही स्थिति है। स्वरूचि भोज का पता नहीं लेकिन क्रांतिकारी पड़ोसन ‘रूचि‘ में सभी की रूचि, यदा-कदा खिड़कियों से, छतों से प्रदर्शित की जाती रही है। कभी-कभी संचार माध्यमों का भी सहयोग लिया जाता रहा है।मैं स्वरूचि भोज में आहूत किया गया, स्वरूचि भोज वो भी ‘रूचि‘ के साथ.....। काWलोनी के सभी वर्तमान युवाओं की वही मन:स्थिति थी जो सरकार बनाने का निमंत्रण मिलने के बाद संयुä मोर्चा व गठबंधन सरकार के नेताओं की थी। मुझे पांडे जी के साथ जाना था। भारतीय परम्पराओं को तोड़ते हुए मैं निर्धारित समय पर पहुँचा। द्वार पर दो द्वारपाल थे। एक हाथ में डायरी, दूसरे में पैन। ये पी.डब्ल्यू.डी. में एकाउन्टेंट थे। ¼लेन-देन में ये पारदर्शी हैं, इनका परसन्टेज फिक्स है½ इनको देखकर यह स्पष्ट था कि ये आने वाली राशि का लेखा-जोखा लिखेंगे। ‘लिखेंगे‘ या ‘रखेंगे‘ ये ईश्वर के अतिरिä वे स्वयं जानते हैं। आनन्दकर जी ¼पुलिस जी½ लड़की के पिता, द्वार पर इस मुदzा में खड़े थे,-देखें! कौन देकर जाता है, कौन साला नहीं। जो नहीं देकर जायेगा, थाने में बुलाकर चôू बरामद करा दूँगा। कुछ ओपन अर्थात अनावृत धन देकर जा रहे थे। जो पहले दे रहे थे, उनका भाव स्पष्ट था ‘कि इतना खायेंगे‘। जो बाद में देंगे, वो भी लिफाफे के बाहर राशि लिखकर, ऐसे महान व्यवहारियों, संबंधियों के समक्ष मैं नतमस्तक होता हूँ। राशि के प्रति उनके इस भाव ‘कि खोलेंगे तो राशि निकल भी सकती है, नहीं भी। हमने दिया, आगे की तुम जानो। हमने लिखकर दिया है। बाद में माल नहीं मिले तो उसकी हमारी कोई गारन्टी नहीं है, ‘भूल-चूक-लेनी-देनी,‘ को मै अपनी अन्तर आत्मा से प्रणाम करता हूँ। सजा खाना, सजी-सलाद, सजी दुल्हन-सेज। एक चने की दो दाल। दोनो का एक भविष्य, एक पंथ...., एक अंत...., हा...... हंत। ¼पंथ, अंत, हंत, आहा ! तुक मिल रही है, लेकिन तुक मिलाने का काम राष्ट्रकवि पर छोड़ो और आगे की कड़ी जोड़ो।½ ये बफे-बफर ¼डफर½ सिस्टम था। जिसकी उत्पŸिा सम्भवत: बफेलो सिस्टम से हुई थी। ये साक्षात पशुभोज सदृश है। ‘बफर की मिठाईयाँ,राशन सामzगी की तरह, एक घन्टे बाद जिसकी स्थिती स्टाWक-बोर्ड पर ‘निल‘ हो जाती है।‘ आगन्तुक टहल रहे थे खाने से पूर्व पेय सामzगी यथा जूस, ठंडा, चाय आदि अस्तित्व में नहीं थी। दरियों-गलीचों पर कपों व टूटे गिलासों को देखकर, पेय पदार्थो के अस्तित्व का अनुमान होता था। क्षणान्तर में आगन्तुक ‘आदिम‘ द्वारा इनका शिíत के साथ विनाश कर दिया गया था। अब इनके विकास की संभावना गौण थी। आगन्तुकों के साथ मुझे भी गृहस्वामी के आदेश की प्रतिक्षा थी। आगन्तुक आक्रामक मुदzा में टहल रहे थे। गृहस्वामी के आगzह की परिणति यलगार व आक्रमण के रूप में हुई। थोड़ी देर बाद खाने का वही हश्र हुआ, जो पिछली तीन लड़ाईयों में पाकिस्तान का हुआ था। मैं प्लेट हाथ में लिए खाना प्राप्त करने के लिए अंत तक संघर्ष करता रहा। ठीक उसी प्रकार जैसे पाकिस्तान कश्मीर प्राप्त करने के लिए करता रहता है। बूथ केप्चरिंग की पावन लोकतांत्रिक प्रक्रिया का निवर्हन करते हुए प्लेट प्राप्ति के प्रयास में बारम्बार हार को मैंने आखिर जीत में तब्दील किया और प्लेट हथियाली, धôाली, मुôाली, जबराली। मैंने दही-भल्ले प्राप्ति के लिए जंग छेड़ रखी थी। सोच रहा था, नहीं मिले तो परमाणु यु++द्ध निश्चित है। मेरे हाथ के नीचे से एक ‘हाथ‘ घुसा, कांगzेस का था या विदेशी ताकतों का , पता नहीं और नीचे से रसगुल्ले निकाल ले गया। मेरे सफेद कपड़ों पर हरी चटनी गिरी। मुझे अपनी श्वेत शान्ति में हरित क्रांति का अहसास हुआ। एक बालक ने मुझे ‘पीत क्रांति‘ की सौगात दी। मैं हाथ, पैर व कपड़ों का स्वच्छीकरण करने लगा तो मुझे ठंड से ‘शीत क्रांति‘ का अनुभव हुआ। धोने की इस प्रक्रिया से गुजरने के बाद अपनी प्लेट को यथा स्थान पर नहीं पाकर मुझमें ‘भयभीत क्रांति‘ का संचार हुआ। मेरी प्लेट गायब हो गई, एक ‘याद‘ हो गई। फिर मैंने निष्कर्ष निकाला कि अगर बफर सिस्टम में खाना खाने जाना हो तो चÔी-बनियान पहन, हाथ में लÎ लेकर Ýी-स्टाइल में जाना चाहिए। दुनिया जानती है लाठी अगर हाथ में हो तो ‘बफे‘ क्या ‘बफेलो‘ तक अपनी होती है। कुछ ऐसे नर पंुगव थे जो प्लेटो में खाद्य सामगिzयाँ लेकर उन्हें मात्र सूंघकर धरती माँ को समर्पित कर रहे थे। ऐसे संत महात्माओं को वेदों और पुराणों में पूर्वजन्म का कर्जदार कहा गया हैं। कुछ चाँदी के चम्मच, बर्तन, दिवंगत हो चुके थे। वे महाभेजकों की जेबगत होकर उनके घरों की शोभा बढ़ाने को लालायित थे। एक सज्जन को मैं एक घन्टे से पहचानने की चेष्टा कर रहा था। सोच रहा था, मैंने इनके कहीं न कहीं दर्शन किये हैं। अन्त में पाया कि ये भगवान वामन के श्रेष्ठ अनुयायी थे, जिन्हें मैंने भिक्षा के नाम पर अनेक राजा बलियों को बली का बकरा बनाते देखा है। बली का बकरा से याद आया कि राजा बलि के पास तीनों लोकों की भूमि थी, हो सकता है वो तत्कालीन भू अभिलेख, रजिस्ट्री अधिकारी को बतौर उपहार अपना पालतू बकरा दिया हो । कालान्तर में यही बकरा, ‘बलि के बकरे‘ के नाम से जाना गया हो। भगवान वामन की तरह इनकी भीख माँगने की स्टाइल भी उत्कृष्ट एवं नवीनतम है, आशा है भिक्षुक एवं भिक्षार्थी इससे लाभान्वित होंगे। ये हाथ में पाँच सौ का एक आदिकालीन नोट लेकर सामने वाले से कहते हैं, ‘‘भाई साहब ! आपके पास दो रू. खुल्ले होंगे ? मेरे पास पाँच सौ का है, खुल्ले नहीं है।‘‘ इस तरह वह पाँच सौ का दिखा-दिखा कर दो-दो के हिसाब से पाँच हजार कर लेता है। मैं कहता हूँ कि सरकार अगर ऐसे बुद्धिजीवियों को संरक्षण दे तो ये नोंटो की खेती का नया फार्मूला बना सकते हैं। फिर गरीबी की ‘रेखा‘ से नीचे जीवन यापन करने वाले ‘अमिताभों‘ को, क्षमा करें... ‘गरीबों‘ को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से बँटवा सकते हैं। कितना अच्छा होगा जब एक गरीब, राशन की दुकान से दस किलो गेहूँ की जगह दस-दस किलो पाँच-पाँच सौ के नोट लायेगा। इस प्रवृति के लोग भोज में धôा-मुôी के मुल थे। थोडी देर में धôा-मुôी, पद-हस्त प्रहार में जीवन्त हो उठी। पता चला कि विद्युत अवरोध के दौरान किसी ‘भदz‘ ने किसी ‘भदzाणी‘ के साथ ‘वो‘ कर दिया, जिसे भारतीय शास्त्र सार्वजनिक रूप से करने की अनुमति नहीं देते। खूब जूतम-पैजार हुई । इस प्रकार के भोजों में पुलिस बल तैनात होना चाहिए ¼जिससे भोजन अगर पुलिस से बचेगा तो ही जनता के लिए रहेगा½ जो ऐसी वारदात होने पर आँसू गैस अथवा अधिक आवश्यकता पड़ने पर लाठी चार्ज कर सके। मैं अपने बुद्धि प्रयोग से अपने को अंग-भंग होने से बचाकर घर आया। वाह रे बफर। साले फालतू घूमने वाले सांड़ भी सिस्टेमेटिक तरीके से खाते हैं। पशुओं के आहार-संहिता होती है। आदमी-आदमी नहीं ‘बिहार‘ हो गया है जहाँ ‘आचार‘ का ‘अचार‘ डाल दिया जाता है।
‘श्याम निकेंतन‘ संगम विहार, नई मण्ड़ी रोड़ दौसा 3033039414035450



संजय झाला : एक साक्षात्कार प्रश्न 1 :- ‘व्यंग्यकार‘ होने के क्या अर्थ हैं?झाला :- वही अर्थ जो काWलोनी में एक ‘सफाईकर्मी‘ व शहर में ‘म्युनिसिपलटी‘ के होने से है। शहर में ‘सफाईकर्मी का महत्व किसी ‘मजिस्ट्रेट‘ से कम नहीं होता। सफाईकर्मी के दायित्व बहुत गहरे हैं, बडे हैं। सफाईकर्मी‘ वह शहर में व्याप्त कीचड़,कचरे व कीड़ो को साफ करता हैं और शहर को एक स्वस्थ व स्वच्छ शहर बनाता है, वहीं व्यंग्यकार समाज में व्याप्त विसंगतियों और विदzूपताओं के कचरे को साफ कर एक स्वच्छ व स्वस्थ समाज का निर्माण करता है। यह एक विडम्बना है कि ‘’ाहर‘ ने न ‘सफाईकर्मी‘ को मान दिया न ‘साहित्य‘ ने व्यंग्यकार को सम्मान। व्यंग्यकार के गहरे सामाजिक सरोकार हैं, वह जिम्मेदार व युग बोधी व्यक्ति होता है तथा जीवन का सच्चा समीक्षक होता है। इसी के चलते आज साहित्य में व्यंग्यकार के पास वो पाWवर है, जो इण्डियन पैनल कोड में पुलिस के पास है। शहर में पुलिस व समाज मे व्यंग्यकार दोनो अपने ढंग से ’लाW एण्ड आWर्डर’ मेन्टेन करते हैं।
प्रश्न 2:- क्या व्यंग्य से हास्य को दूर रखा जा सकता है?झाला:- क्या आप ’िाव से शक्ति को अलग कर सकते हैं? क्या आप प्रकृति से पुरूष को अलग कर सकते हैं, और क्या आप आत्मा को शरीर से दूर या अलग कर सकते है, यदि नहीं तो व्यंग्य से हास्य की कमी दूर नहीं कर सकते। व्यंग्य अगर ‘’िाव‘ है, तो हास्य उसकी ‘’ाक्ति‘ है।
प्र’न 3:- लेकिन विद्वानों ने व्यंग्य में हास्य को सदैव हेय दृष्टि से देखा हैं?झाला :- हेय दृष्टि से उन विद्वानो ने देखा जिनसे हास्य न ‘होते‘ बना, न ‘करते‘ बना और न देखते बना। शरद जी व त्यागी जी पर उन्होने ही फतवे जारी किये। त्यागी जी को तो मात्र नफीस हास्यकार कह कर ही खारिज कर दिया गया। शायद सुनने में अटपटा लगे पर व्यंग्यकार अपनी कला व कलम के कौ’ाल से ही हास्य रचता है। हास्य एब्सर्डीफिके’ान, फैटेसी, एलेगरी से पैदा होता है, इसे सहज पैदा नहीं किया जा सकता। इसके लिये रचनाकार का न केवल दृष्टा, बल्कि गूढ़ दृष्टा होना आव’यक है। बिना विजन के न हास्य पैदा होता है, ना व्यंग्य। इस विजन के बल पर ही व्यंग्य में जो हास्य शरद जी ने व त्यागी जी ने पैदा किया, वो शायद ही कोई कर पाया और कर पाये। सही अर्थो में, हास्य आत्मा की प्रसन्नता व प्रका’ा का पुंज है। वह आत्मा की भाWति अमर, अकाट~य, व अनन्त है व उसी की भाँति निर्विकार वं निष्कलुष व परमात्मवत आनंदस्वरूप है। अत: जो लोग व्यंग्य में हास्य के विरोधी हैं, उन्होने नि’िचत रूप से ‘आत्म‘ साक्षात्कार किया ही नहीं। हमारे कुछ मंच के कवि सुरा के आसुरी प्रभाव से यह कहते हैं, ‘‘हास्य कहीं से भी उठालो’,’’बिखरा पडा हैं’’, या ’’हास्य के लिये कविता की जरूरत ही नहीं’’, वे हास्य-‘व्यंग्य, स्कूल के रेस्टीकेटे~ड स्टूडेन्ट हैं। प्र’न 4:- आज व्यंग्य का विषय राजनीति व पुलिस होता है, क्या व्यंग्य के विषय समाप्त हो गये हैं?झाला :- ऐसा नही हैं। लेकिन यह सच है, व्यंग्यकार की सार्थकता वहीं होती है, जब वह युग की विसंगतियों को गहराई से खोजता है और उस पर प्रहार करता है। लेकिन आज कोई गहराई में उतरना नहीं चाहता, डूबने का खतरा मोल लेना नहीं चाहता। हम तैराक तो हैं, लेकिन स्विमिंग पूल के, जहाँ डूबने के खतरे नहीं हैं।नेता-राजनीति व पुलिस व्यंग्य का कच्चा माल हैं। दूसरी बात यह है कि व्यंग्य ताकतवर और बाहुबलियों की ही गिरेबान पकड़ता है, शायद नेता आज इसीलिये व्यंग्य के केन्दz में हैं। लेकिन समय के साथ ग्लोबलाइजे’ान के युग में व्यंग्य के विषय भी ग्लोबल हो गये हैं। व्यंग्य के विषय अनन्त है लेकिन उसके लिये अनन्त गहराइयों में जाना पड़ता है, जिसके लियें व्यापक दृष्टि व अपार क्षमताओं की आव’यकता होती हैं। फिर भी आज आर्थिक उदारवाद, सामाजिक, पारिवारिक व ’िाक्षा प्रणाली, प्रेम, दाम्पत्य जीवन, सिने जगत, खेल आदि पर खूब लिखा जा रहा हैं।
प्र’न 5:- काव्य मंच पर आज हास्य-व्यंग्य की क्या स्थिति है?झाला :- ‘हास्य-व्यंग्य‘ की दृष्टि से मंच आज सार्वधिक त्रासद दौर से गुजर रहा है। चुटकलों को ‘हास्य-व्यंग्य‘ समझने वालों का मानना है कि मंच के माल पर डकैती पड़ी हैं, उसी माल से लोगों ने लाफ्टर शोरूम खोल लिये और हमारा माल, वहीं नये पैंकिग में बिक रहा है। आश्चर्य की बात यह है कि इस डकैती की रिपोर्ट किसी थाने में नहीं हुई। चुटकलानुरागी कवियों मे हड़कम्प हुआ, पर उनमें अचानक गीता ज्ञान की जागृति हुई। ’’तुम क्या लाये थे, जिसके लिये तुम रोते हो’’, ‘‘आज जो तुम्हारा है, कल किसी और का होगा‘ व ’तुम्हारा क्या था, जो तुमने खो दिया‘‘। हाँ, जिनका ‘मूल‘ गया वे ही ’कूल-कूल‘ रहे, क्योंकि उनमें अपनी रचनाधर्मिता, की नि’िचन्तत्ता थी।
प्रश्न 6:- तो क्या आप चुटकलों के विरोध में खडे हैं?झाला :- सवाल ही नही उठता। यह चुटकला नही ‘चोटकला’ बल्कि ‘कचोटकला’ हैं। इस शब्द में ‘कला’ जुडा है। हास्य ही इसका मूल आधार होता है। सहज, सरल और संक्षिप्तता श्रेष्ठ चुटकलों की पहचान है। बहुधा चुटकले अलंकार युक्त होते हैं। उनमे वचन वैदग्धता होती है। लेकिन माफ करें साहब! लोकगीतो और मुहावरों की तरह यह सार्वजनिक सम्पत्ति है, इस पर किसी का काWपीराइट नहीं है। लेकिन जो चुटकलों को ही हास्य समझते है, मैं उनके विरोध में हूँ। आज चुटकलों को चैनेलाईज करने का दौर है। ‘लाफ्टर शो’ इसी की पैदाइश है।
प्रश्न 7:- चुटकलेबाजी कवि सम्मेलनों में भी तो होती है, वहाँ भी चैनेलाइजर्स हैं फिर आप ‘लाफ्टर शो‘ से ‘‘हास्य कवि सम्मेलनों’’ को अलग करके कैसे देखते है? ये भी हसा रहे है और वो भी हसा रहे हैं। इनमें क्या अन्तर है? झाला :- वही अन्तर, जो बूँद और समुदz में है। कवि सम्मेलनों में चुटकलों के अतिरिक्त, कविता की शाश्वतत्ता है, लोक कल्याण के साथ लोकरंजन हैं, शालीनता है, मर्यादा है , प्रतिष्ठा है, संयम है, और शब्दों का संयत प्रकाशन है , एक गजब की क्रियेटिविटी हैं व हास्य के विधान और उसकी धाराओं का अनुसरण है। वहाँ इनमें से एक भी चीज ढँूढो, तो जानें। हाँ, केवल पाँच प्रतिशत क्रियेटीविटी है, वो भी पाँच लोगो में। हाँ, उन्हांेने हास्य में एक नया काम किया, सार्वजनिक मंचो पर कूल्हे मटकाने, माईक घुमाने, लेटने-बैठने से भी हास्य पैदा किया। सच तो यह है कि भारतीय ‘‘मुदzा‘‘ में इतना सामथ्र्य है, कि उसने भिन्न-भिन्न ‘मुदzा‘ मंे हास्य पैदा करवाया है।
प्रश्न 8:- मंच पर आप भी उन प्रमुख कवियों में हैं, जिन्होने नाटक, मिमिक्री और पैरोड़ी ना जाने किस-किस से हास्य पैदा किया। आपको भी तो चार्जशीट दी जा सकती है। ‘‘काव्येषु नाटकंरम्यं’’ और न जाने क्या क्या?झाला :- दी जा सकती है नही, बल्कि दी गयी। लेकिन मुझे चार्जशीट देने वाले खुद पाWवरलेस ¼डिस्चाज्र्ड½ थे, मेरी जाWच उन लोगों ने की जो उनके क्षेत्राधिकार में थी ही नहीं। पर मै बताना चाहूँगा कि शंकराचार्य जी के पास भी तर्क नहीं होते तो उन्हे भी कोई शंकराचार्य नहीं मानता। मैं ठोस तर्को पर खड़ा हूँ, पढा हूँ, और इसीलिये उन लोगों से लडा हूँ। मैं बहुत गम्भीरता के साथ कहता हूँ- ’’100 चैनलों व नवीन तकनीक से सुसज्जित करोड़ो रूपयें की फिल्मों से लड़ने के लिये मंच को भी नवीन प्रयोग करने होंगे। जिस आदमी का हाथ एक सैकण्ड से ज्यादा रिमोट पर नहीं रूकता, उसकों एक रात खुले मैदान में कैसे रोका जा सकता है, इस पर कवियों को गंभीरता से विचार करना होगा। वाचिक परम्परा के आकर्षण को बढाना होगा, इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि वो भी तबला-सारंगी लेकर भिन्न-भिन्न मुदzाओं में हास्य पैदा करे, हास्य-कवि का तबला-सारंगी तो उसके शब्द, वाणी व भाव हैं। जहाँ तक हास्य कविता में मिमिक्री व पैरोड़ी का सवाल है, ये भी हास्य की प्रतिष्ठित व सनातन शैलियाँ है। अधिकांश लोगो को पता ही नहीं कि स्वयं भरत मुनि ने ’Üाृंगार रस की अनुकृति’ को हास्य माना है। अनुकृति का अर्थ है नकल, अनुकरण, यही नकल हास्य की जड है। स्वयं धनंजय, विश्वनाथ व मम्मट आदि विद्वानों ने भी इसे स्वीकार किया। धनंजय ने कहा कि ‘‘विकृताकृतिवाग्विशेषैरात्मनोस्थ परस्थवा‘‘ विकृत चेष्टा, शब्दावली, वेशभूषा अपनी भी हो सकती है और दूसरे की भी। यह तो बात हुई मिमिक्री की। जहाँ तक पैरोड़ी का सवाल हैं, वह भी हास्य की शाखा है। आर्थर साइमन ने कहा है कि अच्छी पैरोड़ी के लिये मूल के साथ धनिष्ठता होना जरूरी है; वह धनिष्ठता, लय, स्वर,शब्द और आरोह-अवरोह की है। महाकवि पोप नें ’रेप आWफ द लाWक’ के रूप में एक महाकाव्य की पैरोड़ी की है। मैं जब सोनिया जी का भाषण उन्ही की शैली में पढ़ता हूँ, प्रमुख राजनेता और एस.डी. बर्मन की पैरोडी करता हूँ तो गीत समzाट पदमभूषण नीरज जी मुझे गले लगाते हैं, यही मिमिक्री व पैरोड़ी की सफलता है। मेरी कविता में नाटकीयता के विरोधियों से मेरा निवेदन है कि वे नाट~यशास्त्र पढे+। ’नाट~यवेद’ को ’पाWचवा वेद’ माना गया है। कविता और नाटक का उÌेंश्य एक है, लोक कल्याण। लोकानुरंजन माध्यम है। नाट~यकार के साथ कवि को भी कुशल, पंडित, वाकपटु व थकान को जीतने वाला होना चाहिये। ‘‘कुशलां ये विदग्धाश्च प्रगल्भाश्च जितश्रम:‘‘।
प्रश्न 9:- पाकिस्तान व भारत में हास्य-व्यंग्य की वर्तमान में क्या स्थिति है?झाला :- पाकिस्तान में हास्य-व्यंग्य की स्थिति कम से कम पाकिस्तान से तो बेहतर हैं, वहाW मंच पर उमर शरीफ जैसे सार्वकालिक उम्दा हास्य कलाकार हैं। इन दिनों टी.वी. चैनल्स के हास्य कार्यक्रमों मेे पाकिस्तानी कलाकारों की बाढ़ सी आ गयी है, सब अच्छे कपड़े-पहन कर अच्छा कमा रहे हैं, जैसे उनके दिन फिरे। पर भारत में हास्य-व्यंग्य की स्थिति सदैव उत्तम थी, है पर रहेगी, इस पर हमें गम्भीर होना पडे+गा ।
प्रश्न 10:- आप नई पीढ़ी के बारे मे क्या सोचते हैं?उनके प्रति आश्वस्ति नही है क्या?झाला :- नई पीढ़ी अपने बारे में खुद नहीं सोच रही, मैं क्या सोच सकता हWू। मुझे कहने में कोई संकोच नही कि नई पीढ़ी, गुटखे, सिगरेट, पैग वाली पीढ़ी बनती जा रही है, वो केवल ‘चैम्पियनो’, ‘किंगो’ और ‘समzाटों’ के खिताबों में उलझी है, इन्हे ‘किताबो‘ से मतलब नही हैं। नई पीढी में ज्यादातर लोग उन संस्थानों के छात्र हैं, जिनके मुख्य द्वार पर लिखा होता है ‘मैट्रिक फेल सीधे ठण्।ण् करें।’’ नयी पीढ़ी केवल चैनलों की चाल, ‘तालियों की ताल व ‘माल’ को समझती है। जो क्रियेटिव हैं या तो वे चैनलों में जाना नही चाहते या चैनल उनके पास आना नहीं चाहते। कथित नई पीढ़ी अभी से नन्यानवें के फेर में है, पर ये पीढ़ी सांप सीढ़ी के उस खेल को नहीं जानती, जहाँ नन्यानवे अंक पर साWप डसता है तो खिलाड़ी सीधा नीचे आता है। यह सभी के लिये सार्वभौमिक सत्य है। इसमें मैं भी हूँ।
प्रश्न 11:- और अन्त में एक प्रश्न, टी.वी. चैनलों पर इन दिनों हास्य कार्यक्रमों प्रतियोगिताओं की भरमार है, इनका क्या भविष्य है? झाला :- ये हास्य के ‘कार्यक्रम’ नहीं, हास्य का ‘क्रियाकर्म’ हैं। इन कार्यक्रमों में जज वे होते हैं, जो कम्पलसरी रिटायर्ड हैं। इन कार्यक्रमों का सार यह है कि चैनलांे के बाजारू महाभारत में निरीह चुटकला चक्रव्यूह में फंस गया है, सारे महारथी दिन में दस बार नाच-नाच कर चुटकलों का ‘वध’ करते है। ऐसा वध, जिसकी कोई हद नही है। इन कार्यक्रमों के प्रोड~यूसर्स है, वे जयदzथ हैं, जिन्होने हास्य-व्यंग्य के पांडवो को गेट पर ही रोक रखा है, ऐसे में चुटकले का वध तो होगा ही। मुझे इन कार्यक्रमों के भविष्य का तो पता नहीं, पर जयदzथ के भवि”य को मैं जानता हूँ। लेकिन फिर भी ऐसे कार्यक्रमों का आधिक्य इस बात का प्रमाण तो है ही कि हास्य की जरूरत समाज को हमेशा रही है, रही थी, और रहेगी।

मैं इसलिये व्यंग्य लिखता हँू-
संजय झाला
व्यंग्य के विषय में मैं धीरे-धीरे इस नि”कर्”ा पर पहुWचा हूँ कि व्यंग्य एक ‘’ौली’ भी है, व्यंग्य एक ‘विधा‘ भी है, किन्तु मूलत: व्यंग्य एक ‘विचार‘ है, एक ‘विचारधारा‘ है और एक ‘दृष्टिकोण‘ है; इस पर विभिन्न मतों व तर्को की कोई सम्भावना नहीं है। विचार-विचारधारा-दृ’िटकोण, व्यक्ति की रूचि-अरूचि, उसकी स्वीकार्यता-अस्वीकार्यता, उसकी वृत्ति-प्रवृति, भाव व स्वभाव से समकालीन अनुभवों व चिन्तन मनन से न केवल जन्म लेती है अपितु विस्तार भी पाती है। मेरे व्यंग्य लिखने की प्रेरणा इससे स्प”ट हो जाती है। यह सत्य है कि लेखन एक गंभीर व कठिन कर्म है और व्यंग्य लेखन तो और अधिक कठिन व गंभीर है, क्योकि किसी भी विधा के लेखक की अपेक्षा व्यंग्यकार के गहरे सामाजिक सरोकार हैं व दायित्व है। इन दायित्वों से विमुख होना ही व्यंग्यकार की मृत्यु है। व्यंग्यकार का दायित्व है कि वह अपने कालखंड को गहराई से देखे-परखे, समझे व उनका विश्लेषण करे, उसका दायित्व है कि युग की विसंगतियों, विदzूपताओं, पाखंड, अनाचार, मिथ्याचार की परत-दर-परत छीले और उनके विरूद्ध व्यक्ति व समाज को सचेत करे, जागृत करे तथा एक स्वच्छ व स्वस्थ समाज के निर्माण की कामना करे। यही दायित्व व्यंग्यकार को विशिष्ट, विलक्षण, सर्वोपरि व शक्तिशाली बनाता हैं। यह भी सार्वभौमिक सत्य है कि व्यंग्य, साहित्य की किसी भी विधा में रचा-लिखा जा सकता है, चाहे वह कहानी, गीत, नाटक, गजल, संस्मरण व निबन्ध जो भी हो, क्योंकि व्यंग्य की दृष्टि विराट व व्यापक है। उसकी मारक क्षमता व पहुँच दूर तक है। इससे पुन: यही सिद्ध होता है कि व्यंग्य एक ’विचार है, दृष्टिकोण है। सही अर्थो में व्यंग्य ‘सहस्त्राक्ष‘, ‘सहस्त्रकर्ण’ व ‘सहस्त्रानन’ है, इसके पास विसंगति को देखने, सुनने व बोलने के लिये हजार-हजार आWखंे, कान व मुख हैं। व्यंग्य नवरसों को कसने वाली रज्जू है, जिसको ढीला छोड़ने का परिणाम, विनाश व ध्वंस है। व्यंग्य भगवान शिव की तरह है, ध्वंसक, मारक व प्रहारक । किन्तु यह ध्वंस और प्रहार, विषमताओं और असंगतियों पर मरहम करते हुए मानव-कल्याण की कामना समेटे हुये है। ध्यान से देखें तो बन्धन के अन्तर में स्वतंत्रता, मृत्यु में मोक्ष व विनाश में विकास व युद्ध मंे शांति निहित है, ठीक वैसे ही व्यंग्य में कल्याण की कामना निहित है। भगवान कृष्ण जानते थे कि महाभारत में ही भारत की “ाांति निहित है। उन्होने शांति के लिये ही अर्जुन को ’बाण’ चलाने के लिये कहा था। यही बाण आज के परिप्रेक्ष्य में ’व्यंग्यबाण’ के रूप में समाज रणभूमि में, जीवन की रणभूमि में विसंगति, कुसंगतियों, असंगतियों का विनाश कर रहा है। यदि समय-समय पर ईश्वर का अवतरण, साधुओं के परित्राण के लिये, दु”कृतों के विना’ा के लिये और धर्म की स्थापना के लिये हुआ है तो व्यंग्य सृजन के भी यही मूल कारण हैं। हमारे कुछ व्यंग्यालोचक मित्र बहुधा मुझसे कहते हैं कि तुम्हारे व्यंग्य लिखने से कौन सा राम-राज आयेगा, कौनसी क्रांति आयेगी, कौन सुधरेगा, इस व्यंग्य से क्या होने वाला है, गेंडों के गुलगुली करने से क्या लाभ? क्यों लिखते हो ये व्यंग्य-फंग आदि-आदि। मैं उनसे पूछता हँू कि इन चैनल वाले धर्मधारकों ने कौन से धर्म की स्थापना कर दी, कितने लोगों को सुधार दिया, सन्मार्ग पर चलाया, पाखण्ड को समाप्त किया, तो क्या इन्हे कथा, भागवत, प्रवचन, उपदे’ा बन्द कर देने चाहिये। इनके धर्मोपदे’ा, समाज को सुधारें या नहीं सुधारे पर धर्म परायण लोगों को, धर्मानुसरण के लिये बल प्रदान अव’य करते हैं, यह सत्य है। पुलिस के होते हुये भी शहर में अपराध होते हैं, फिर पुलिस का क्या काम है? केवल अपराध रोकना ही पुलिस का काम नही है, वह सत्य की रक्षा भी करती है। अपराध रूके या ना रूके किन्तु यह पुलिस ही है, जिसके डर से आदमी अपराध नहीं करता है और अपराध करता है तो भयभीत रहता है। वह सुधारात्मक व दण्डात्मक दोनो प्रकार की संस्था है। पुलिस जहाँ खल का निगzह करती है, वहीं सद~ का संरक्षण भी करती है, यह भी सत्य है। ठीक उसी तरह सार्थक व्यंग्य से समाज में कोई सुधरे या ना सुधरे किन्तु समाज के कुछ चन्द लोग, जो सदा से नीति-नियम-न्याय और नैतिकता के मार्ग पर चल रहे हैं, इन्हे नैतिक बल, समर्थन व संरक्षण अवश्य देते हैं और कहते हैं, ‘‘मित्र! खण्डाला नही जायेंगे जहा केवल खाया, पीया जाता और ऐ’ा की जाती है, हम तो त्रयम्बके’वर ही जायेंगे , जहाW वि”ा पान व वि”ा पाचन सिखाया जाता है।’’

22 जुलाई विशेष
यत्र लक्ष्मीस्त्रु पूज्यन्ते-रमन्ते तत्र सांसदा:
नारद जी अचानक अकुलाये, विकलाये, बरगलाये वैकुण्ठ धाम पहुँचे। लक्ष्मी जी को प्रणाम किया, बोले, ‘‘माँ ! ये क्या!! आप बिना बुलाये, बिना बताये 22 जुलाई को पार्लियामेंट चली गयीं, मीडिया आपको बहुत हाईलाइट कर रहा है, कह रहा है ‘लोकतंत्र’ अब ‘नोटतंत्र’ हो गया है और सबसे तेज चैनलो को भी यह आज ही पता चला हैं। माँ, आपको पार्लियामेंट जाने कि क्या जरूरत थी। मैं वैकुण्ठ का पी.आर.ओ. हँू मुझे तो बताया होता और इतनी टाइट सिक्योरिटी में अकेली कैसे चली गयीं और जाने के लिये आपने राजस्थान और मध्यप्रदेश के मार्गे को ही क्यों चुना, जहाँ तक मैं जानता हूँ मध्यप्रदेश मंे तो ‘मार्ग व सड़क’ जैसे शब्दो के उच्चारण करने वालो को ही हेय दृष्टि से देखा जाता है। आप वाया गोवा, हिमाचल प्रदेश व उडीसा क्यों नही गयीं और सबसे बडा प्रश्न है कि पार्लियामेंट मे आपने अपना तीन करोडीय विराट रूप दिखानें के लिये भाजपा सांसदांे को ही क्यों चुना? हे! ‘हिरण्यवर्णा हरिणीसुवर्णम~ रजस्त्राम’ अर्थात हे! सोने के समान पीले रंगवाली ¼मैं क्षंमा चाहता हूँ माता, सोने के समान रंग वाली होने के बाद भी मैं आपको ‘सोनिया जी’ नहीं कह सकता½ हे हरिणी! अर्थात हे! हरी हरी कन्नी के नोटांे वाली, हे! चांदी के समान धवल पुष्पो की माला धारण करने वाली हरिण्यमयी माँ मुझे थोडा डिटेल बताओं। लक्ष्मी जी थोडा गम्भीर होकर बोलीं, हे नारद! तुम जानते हो, मैं बिना वाहन और बिना आव्हान कहीं नही जाती, जहाW तक पार्लियामेंट की बात है, मेरे वाहन कम वाहनचालक ‘उलूकनाथ’ के कुछ मित्रों रिश्तेदारो को आWब्लाइज करना था, इसी लिये मैं उसका आगzह नहीं टाल सकी। उन्होने ‘‘Åँ तां म आवाहयामी’’ कहकर भिन्न भिन्न मुदzाओं मे मेरा आव्हान किया था। जहाँ तक टाइट सिक्योरिटी की बात है, तुम तो जानते हो मेरी गति मन, शब्द और वाणी से भी हजारो गुना तीवz है। दुनिया की तमाम सिक्योरिटीज मेरे ही लिये हैं। मैं ही उनकी कारण हूँ तथा कारक हँू, मैं सिक्योरिटीज में रहते हुए भी मुक्त हुँ और मुक्त होते हुए भी सिक्योरिटी मंे हूँ जहँा तक पार्लियामेंट की सिक्योरिटी का सवाल है तो वो अफजल के फजल से ¼माफ करना नारद मेरी उर्दु थोड़ी कमजोर है½ सारी दुनिया जानती है। जहाँ तक वाया मध्यप्रदेश जाने का सवाल है, मध्यप्रदेश सबसेे अच्छा है; क्योकि यह ‘मध्य’ मंे है। उस वक्त मैं एम.पी.¼मध्यप्रदेश½ में कैम्प कर रही थी। अब एम.पी. मंे कैम्प करूँ और एम.पी. के एम.पी.¼मैम्बर आWफ पार्लियामेंट½ मुझे याद करें और मंै जाÅँ नहीं, यह कैसे हो सकता है? बीच में राजस्थान पड़ गया, सोचा राजस्थान की ‘वसुंन्धरा’ को भी प्रणाम कर लूँ। जहाँ तक भाजपा वाले सांसदो के माध्यम से मेरे विराट रूप प्रदर्शित करने की बात है, उसका कारण है कि इन ‘‘भाजपा’’ वालो ने मुझे हमेशा ‘‘जपा’’ है अब जिस ने मुझे जपा है, मंै उसी को फल देती हूँ यह मेरा फलसफा है। यहाँ फलसफा का तात्पर्य है वह फल जो ‘सपा‘ ¼समाजवादी पार्टी½ ‘सफा’ कर गयी। लेकिन भाजपाई मेरे सगे भाई हैं, क्यांेकि इन्होने तो अपने पार्टी का चुनाव चिन्ह भी ‘कमल’ ही रखा है और सब जानते हैं, कि मै ‘कमल’ से पैदा हुई हुँ और कमल पर ही रहती हूँ। तुम तो जानते हो नारद ‘कमल’ मेरा वीक फैक्टर है। उन्होने मुझे इमोशनली ब्लैकमेल किया और मेरी प्रार्थना कुछ इस तरह की- हे पùानने! लक्ष्मी देवि! आपका श्रीमुख कमल के समान है तथा नेत्र भी कमल सदृश हैं। आप कमल से पैदा हुई हैं। अत: हे कमलनयनी! मेरे Åपर दया दृष्टि कीजिये, जिससे हम सुख को प्राप्त होवे।¼श्रीलक्ष्मीसूक्तम~ से½ इसीलिये मुझे जाना पडा। ज्यादातर सांसद मेरे पुत्रो के समान है; ये सभी सांसद मुझे मेरे चार पुत्रों ‘आनन्द’, ‘कर्दम’, ‘चिक्लीत’ और ‘श्रीत’ के समान प्रिय हैं। मैं जहाँ रहती हुँ मेरे पुत्र वहीं रहते हैं, और मेरे पुत्र जहाँ रहते है, मैं वही रहती हूँ।
संजय झाला‘श्याम निकेतन‘ संगम विहार, नई मण्ड़ी रोड़ दौसा 3033039414035450
निन्दा रस पिपासु
हम çारम्भ से ही परनिन्दा-रस-पिपासु हैं। निन्दा करने में व परनिन्दा सुनने में जो सुख है, सकल निन्दावेŸााओं के मुताबिक वो सुख नाही राम भजन में, वो सुख नाहिं अमीरी में। हमारी प्रसéता सदैव दुसरे की अप्रसéता पर डिपेण्ड करती है और वो हमेशा लाशों पर कबìी खेलने की फिराक में रहती है। हम अपने पूर्वजों ¼बन्दरों½ के संस्कारों को कैसे छोड़ सकते है, जिसमें किसी ’बया’ का आशियाना उजाड़ना बड़ा सुखकर होता है। मैं कई ऐसे परमनिन्दावेŸााओं को जानता हूँ जो ’क’ के सामने ’ख’ की निन्दा करते हैं और ’ख’ के सामने ’क’ की और इसका जो परिणाम मिलता है वो यह है कि ये सुबह ’क’ के घर चाय पीते है और शाम को ‘ख‘ के साथ पनीर पकोड़े खाते हैं। विरोधियों की निन्दा सुनकर जो मजा आता है वो एक विद्वान के मुताबिक ‘‘ना मदिरा के चषक में है ¼इसका सरलार्थ दारू की सिप के रूप में भी किया जा सकता है½ ना नर्तकियों के नादमय पदन्यास में है और ना ही अप्सराओं के आवेगपूर्ण आलिंगन में हैं।‘‘ राजनीति में विरोधियों की निन्दा, विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। आलाकमान के सामने उनके ही विरोधी की निन्दा कर कई प्रतिभाशाली निन्दामनीषी म्यूनिसपाल्टी के मेम्बर से लेकर पार्लियामेन्ट के मेम्बर बन चुके हैं। कुछ निन्दाविज्ञों और रसज्ञों के अनुसार निन्दा भी कई प्रकार की होती हैं। पहली ‘अकाम निन्दा’। ये निन्दा बिना किसी काम के, लोभ व लालच के की जाती है। यह निन्दा स्वभावगत होती है। यह रä को बढ़ाने वाली व वीर्यवद्र्धक होती है। इससे âदय को बल मिलता है व स्नायु तंत्र मजबूत होता हैं।दूसरी होती है ‘सकाम निन्दा’। यह निन्दा सçयोजन की जाती है, ठीक उसी çकार जिस çकार अविवाहिता इक्कीस सोमवार व विवाहिता करवा चौथ करती है। इस प्रकार निन्दकों के शरीर में विशेष कट~स निकल जाते हैं, जो çाचीन काल में योगियों और वर्तमान में जिम जाने वालों के निकलते हैं। सकाम निन्दा करने वालों में प्राय: एक शिष्ट व विशिष्ट प्रकार का कमीनापन पाया जाता है। तीसरे प्रकार की निन्दा होती है ‘कर्Ÿाव्यीय निन्दा’। इस निन्दा की दो शाखाएँ होती है, पहली ‘सरकारी’ स्तर पर,दूसरी ‘विरोधियो’ के स्तर पर। सरकारी स्तर पर की जाने वाली निन्दा में एक शब्द ‘घोर’ जुड़ा होता है, जिसे सरकारी लिपि में ‘घोर निन्दा’ कहा जाता है। इस प्रकार की निन्दा से, जो निन्दा कर रहा है उस पर व जिसकी की जा रही है उस पर, दोनों के स्वास्थ्य पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता। ठीक उसी çकार जैसे विŸा व योजना आयोग के क्रियाकलापों से भिखारियों पर, कानून के होने या न होने से अपराधियों पर व संसद के होने या न होने से गरीबों के चूल्हे की बुझी आग पर काई प्रभाव नहीं पड़ता। दूसरी है, विरोधियों द्वारा की जाने वाली निन्दा। इसमें निन्दा परम कर्Ÿाव्य व मूल अधिकार है। ये विरोधियों की पाचन क्रिया में ‘ईसबगोल की भुस्सी’ का कार्य करती है। सरकार चाहे बैंगन का भुरता बनाये या दाल Ýाई हमें तो बस निन्दा करनी है।निन्दा में एक विशे’ा çकार का रस होता है। इसमें विशेष çकार के çोटीन, विटामिन व लवण पाये जाते हैं जो सेहत को तन्दुरूस्त रखते है। निन्दा करने से हेल्थ बनती हैं। अगर आपको कोई स्वस्थ व बलिष्ठ व्यäि मिल जाये तो समझो कि निन्दा करके ही सेहत बनाई है। निन्दकों को वानरराज बाली की तरह वरदान çाप्त है, उसके सामने जो भी आयेगा उसका आधा बल बाली में आ जायेगा। निन्दा से ’हेल्थ’ व ’वेल्थ’ दोनों मिलती है। बाली को ’हेल्थ’ मिली व उसके बिरादर सुगzीव को बाली की निन्दा रामजी से करने पर ’वेल्थ’ मिली। निन्दा से मोक्ष व परमानन्द की प्राप्ति होती है। इसीलिए सूरदास जी ने कहा है, ’’निन्दा सबद रसाल’’ संजय झाला श्याम निकेतन,संगम विहार नई मण्डी रोड़ दौसा
बफर-बफे-बफेलो• संजय झाला
स्वरूचि भोज में मेरी सदैव अरूचि रही, ठीक उसी प्रकार जैसे प्रधानमंत्री पद के प्रति प्रधानमंत्री बनने से पूर्व वी.पी.सिंह की,राजनीति में आने से पहले राजनीति के प्रति सोनिया की। लेकिन क्या करें? पता चला दोनों को देश भäि के भारी दबाव के कारण दोनों काम करने पड़े।मेरी भी यही स्थिति है। स्वरूचि भोज का पता नहीं लेकिन क्रांतिकारी पड़ोसन ‘रूचि‘ में सभी की रूचि, यदा-कदा खिड़कियों से, छतों से प्रदर्शित की जाती रही है। कभी-कभी संचार माध्यमों का भी सहयोग लिया जाता रहा है।मैं स्वरूचि भोज में आहूत किया गया, स्वरूचि भोज वो भी ‘रूचि‘ के साथ.....। काWलोनी के सभी वर्तमान युवाओं की वही मन:स्थिति थी जो सरकार बनाने का निमंत्रण मिलने के बाद संयुä मोर्चा व गठबंधन सरकार के नेताओं की थी। मुझे पांडे जी के साथ जाना था। भारतीय परम्पराओं को तोड़ते हुए मैं निर्धारित समय पर पहुँचा। द्वार पर दो द्वारपाल थे। एक हाथ में डायरी, दूसरे में पैन। ये पी.डब्ल्यू.डी. में एकाउन्टेंट थे। ¼लेन-देन में ये पारदर्शी हैं, इनका परसन्टेज फिक्स है½ इनको देखकर यह स्पष्ट था कि ये आने वाली राशि का लेखा-जोखा लिखेंगे। ‘लिखेंगे‘ या ‘रखेंगे‘ ये ईश्वर के अतिरिä वे स्वयं जानते हैं। आनन्दकर जी ¼पुलिस जी½ लड़की के पिता, द्वार पर इस मुदzा में खड़े थे,-देखें! कौन देकर जाता है, कौन साला नहीं। जो नहीं देकर जायेगा, थाने में बुलाकर चôू बरामद करा दूँगा। कुछ ओपन अर्थात अनावृत धन देकर जा रहे थे। जो पहले दे रहे थे, उनका भाव स्पष्ट था ‘कि इतना खायेंगे‘। जो बाद में देंगे, वो भी लिफाफे के बाहर राशि लिखकर, ऐसे महान व्यवहारियों, संबंधियों के समक्ष मैं नतमस्तक होता हूँ। राशि के प्रति उनके इस भाव ‘कि खोलेंगे तो राशि निकल भी सकती है, नहीं भी। हमने दिया, आगे की तुम जानो। हमने लिखकर दिया है। बाद में माल नहीं मिले तो उसकी हमारी कोई गारन्टी नहीं है, ‘भूल-चूक-लेनी-देनी,‘ को मै अपनी अन्तर आत्मा से प्रणाम करता हूँ। सजा खाना, सजी-सलाद, सजी दुल्हन-सेज। एक चने की दो दाल। दोनो का एक भविष्य, एक पंथ...., एक अंत...., हा...... हंत। ¼पंथ, अंत, हंत, आहा ! तुक मिल रही है, लेकिन तुक मिलाने का काम राष्ट्रकवि पर छोड़ो और आगे की कड़ी जोड़ो।½ ये बफे-बफर ¼डफर½ सिस्टम था। जिसकी उत्पŸिा सम्भवत: बफेलो सिस्टम से हुई थी। ये साक्षात पशुभोज सदृश है। ‘बफर की मिठाईयाँ,राशन सामzगी की तरह, एक घन्टे बाद जिसकी स्थिती स्टाWक-बोर्ड पर ‘निल‘ हो जाती है।‘ आगन्तुक टहल रहे थे खाने से पूर्व पेय सामzगी यथा जूस, ठंडा, चाय आदि अस्तित्व में नहीं थी। दरियों-गलीचों पर कपों व टूटे गिलासों को देखकर, पेय पदार्थो के अस्तित्व का अनुमान होता था। क्षणान्तर में आगन्तुक ‘आदिम‘ द्वारा इनका शिíत के साथ विनाश कर दिया गया था। अब इनके विकास की संभावना गौण थी। आगन्तुकों के साथ मुझे भी गृहस्वामी के आदेश की प्रतिक्षा थी। आगन्तुक आक्रामक मुदzा में टहल रहे थे। गृहस्वामी के आगzह की परिणति यलगार व आक्रमण के रूप में हुई। थोड़ी देर बाद खाने का वही हश्र हुआ, जो पिछली तीन लड़ाईयों में पाकिस्तान का हुआ था। मैं प्लेट हाथ में लिए खाना प्राप्त करने के लिए अंत तक संघर्ष करता रहा। ठीक उसी प्रकार जैसे पाकिस्तान कश्मीर प्राप्त करने के लिए करता रहता है। बूथ केप्चरिंग की पावन लोकतांत्रिक प्रक्रिया का निवर्हन करते हुए प्लेट प्राप्ति के प्रयास में बारम्बार हार को मैंने आखिर जीत में तब्दील किया और प्लेट हथियाली, धôाली, मुôाली, जबराली। मैंने दही-भल्ले प्राप्ति के लिए जंग छेड़ रखी थी। सोच रहा था, नहीं मिले तो परमाणु यु++द्ध निश्चित है। मेरे हाथ के नीचे से एक ‘हाथ‘ घुसा, कांगzेस का था या विदेशी ताकतों का , पता नहीं और नीचे से रसगुल्ले निकाल ले गया। मेरे सफेद कपड़ों पर हरी चटनी गिरी। मुझे अपनी श्वेत शान्ति में हरित क्रांति का अहसास हुआ। एक बालक ने मुझे ‘पीत क्रांति‘ की सौगात दी। मैं हाथ, पैर व कपड़ों का स्वच्छीकरण करने लगा तो मुझे ठंड से ‘शीत क्रांति‘ का अनुभव हुआ। धोने की इस प्रक्रिया से गुजरने के बाद अपनी प्लेट को यथा स्थान पर नहीं पाकर मुझमें ‘भयभीत क्रांति‘ का संचार हुआ। मेरी प्लेट गायब हो गई, एक ‘याद‘ हो गई। फिर मैंने निष्कर्ष निकाला कि अगर बफर सिस्टम में खाना खाने जाना हो तो चÔी-बनियान पहन, हाथ में लÎ लेकर Ýी-स्टाइल में जाना चाहिए। दुनिया जानती है लाठी अगर हाथ में हो तो ‘बफे‘ क्या ‘बफेलो‘ तक अपनी होती है। कुछ ऐसे नर पंुगव थे जो प्लेटो में खाद्य सामगिzयाँ लेकर उन्हें मात्र सूंघकर धरती माँ को समर्पित कर रहे थे। ऐसे संत महात्माओं को वेदों और पुराणों में पूर्वजन्म का कर्जदार कहा गया हैं। कुछ चाँदी के चम्मच, बर्तन, दिवंगत हो चुके थे। वे महाभेजकों की जेबगत होकर उनके घरों की शोभा बढ़ाने को लालायित थे। एक सज्जन को मैं एक घन्टे से पहचानने की चेष्टा कर रहा था। सोच रहा था, मैंने इनके कहीं न कहीं दर्शन किये हैं। अन्त में पाया कि ये भगवान वामन के श्रेष्ठ अनुयायी थे, जिन्हें मैंने भिक्षा के नाम पर अनेक राजा बलियों को बली का बकरा बनाते देखा है। बली का बकरा से याद आया कि राजा बलि के पास तीनों लोकों की भूमि थी, हो सकता है वो तत्कालीन भू अभिलेख, रजिस्ट्री अधिकारी को बतौर उपहार अपना पालतू बकरा दिया हो । कालान्तर में यही बकरा, ‘बलि के बकरे‘ के नाम से जाना गया हो। भगवान वामन की तरह इनकी भीख माँगने की स्टाइल भी उत्कृष्ट एवं नवीनतम है, आशा है भिक्षुक एवं भिक्षार्थी इससे लाभान्वित होंगे। ये हाथ में पाँच सौ का एक आदिकालीन नोट लेकर सामने वाले से कहते हैं, ‘‘भाई साहब ! आपके पास दो रू. खुल्ले होंगे ? मेरे पास पाँच सौ का है, खुल्ले नहीं है।‘‘ इस तरह वह पाँच सौ का दिखा-दिखा कर दो-दो के हिसाब से पाँच हजार कर लेता है। मैं कहता हूँ कि सरकार अगर ऐसे बुद्धिजीवियों को संरक्षण दे तो ये नोंटो की खेती का नया फार्मूला बना सकते हैं। फिर गरीबी की ‘रेखा‘ से नीचे जीवन यापन करने वाले ‘अमिताभों‘ को, क्षमा करें... ‘गरीबों‘ को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से बँटवा सकते हैं। कितना अच्छा होगा जब एक गरीब, राशन की दुकान से दस किलो गेहूँ की जगह दस-दस किलो पाँच-पाँच सौ के नोट लायेगा। इस प्रवृति के लोग भोज में धôा-मुôी के मुल थे। थोडी देर में धôा-मुôी, पद-हस्त प्रहार में जीवन्त हो उठी। पता चला कि विद्युत अवरोध के दौरान किसी ‘भदz‘ ने किसी ‘भदzाणी‘ के साथ ‘वो‘ कर दिया, जिसे भारतीय शास्त्र सार्वजनिक रूप से करने की अनुमति नहीं देते। खूब जूतम-पैजार हुई । इस प्रकार के भोजों में पुलिस बल तैनात होना चाहिए ¼जिससे भोजन अगर पुलिस से बचेगा तो ही जनता के लिए रहेगा½ जो ऐसी वारदात होने पर आँसू गैस अथवा अधिक आवश्यकता पड़ने पर लाठी चार्ज कर सके। मैं अपने बुद्धि प्रयोग से अपने को अंग-भंग होने से बचाकर घर आया। वाह रे बफर। साले फालतू घूमने वाले सांड़ भी सिस्टेमेटिक तरीके से खाते हैं। पशुओं के आहार-संहिता होती है। आदमी-आदमी नहीं ‘बिहार‘ हो गया है जहाँ ‘आचार‘ का ‘अचार‘ डाल दिया जाता है।

मै संजय.